उपासना एवं आरती >> सरस्वती उपासना सरस्वती उपासनाराधाकृष्ण श्रीमाली
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प्रस्तुत है सरस्वती उपासना.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वैदिक साहित्य में उपासना का महत्त्वपूर्ण स्थान है हिन्दू धर्म के सभी
मतावलम्बी वैष्णव, शैव शाक्य तथा सनातन धर्मवलम्बी-उपासना का ही आश्रय
ग्रहण करते हैं। यह अनुभूत सत्य है कि मन्त्रों में शक्ति होती है। परन्तु
मन्त्रों की क्रमबद्धता शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक
है जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण
होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, अन्य सोते रहते हैं, उसी प्रकार
शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और और देवों की जाग्रत
करते हैं। क्रमबद्धता भी उपासना की महत्त्पूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में
हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यक्ति क्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई
होती है उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उतपन्न कर सकता है।
अतः उपासना पद्धति में मंत्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्धता प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टम की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इसी श्रृंखला में प्रस्तुत-
अतः उपासना पद्धति में मंत्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्धता प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टम की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इसी श्रृंखला में प्रस्तुत-
दो शब्द
माता सरस्वती या कि शारदा देवी मन, बुद्धि और ज्ञान की अधिष्टात्री देवी
हैं। विद्या की देवी सरस्वती हंसवाहिनी, श्वेतवस्त्रा चार भुजाधारी और
वीणा-वादिनी हैं। अतः संगीत और अन्यान्य ललित कलाओं की अधिष्ठात्री देवी
भी सरस्वती ही हैं शुद्धता, पवित्रता, मनोयोग पूर्वक निर्मल मन से करने पर
उपासना का पूर्ण फल माता प्रदान करती है। जातक विद्या, बुद्धि और नाना
प्रकार की कलाओं में सिद्ध-सफल होता है तथा मनुष्य की सभी अभिलाषाएं पूर्ण
होती हैं।
सरस्वती चिदानन्दमयी, अखिल भुवन कारण स्वरूपा, जगदात्मिका हैं। इन्हें सरस्वती, महासरस्वती, नील सरस्वती कहते हैं। सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री हैं। रंग इनका चन्द्रमा के समान धौला, कुंद पुष्प के समान उज्जवल है। चारों हाथों में वीणा, पुस्तक, माला लिए हैं। एवं एक हाथ में वरमुद्रा में है। यह श्वेत पद्मासना हैं। शिव, ब्रह्मा विष्णु देवराज इन्द्र भी इनकी सदैव स्तुति करते हैं। हंस इनका वाहन है। जिन पर इनकी कृपा हो जाए उसे विद्वान बनते देर नहीं लगती। कालीदास का उदारहण ही यथेष्ट होगा।
माँ भगवती सरस्वती का विशेष उत्सव माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् वसन्त पंचमी को मनाया जाता है। जब-जब आवश्यकता होती है परमेश्वर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूप में अवतरित होते हैं। महाकाली रौद्ररूपा शक्ति प्रधान दुष्टों का संहार करती हैं। सत्य प्रधान महालक्ष्मी सृष्टि का पालन करती हैं एवं रजः प्रदान ब्राह्मी शक्ति महासरस्वती जगत् की उत्पत्ति व ज्ञान का कार्य करती हैं।
शुंभ-निशुंभ दैत्यों ने इन्द्रादिक देवताओं को पराजित कर उनके अधिकार छीन लिए, देवों ने हिमालय पर जाकर माँ भगवती की अराधना की। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती पार्वती आईं, उस समय उनके देह से ‘शिवा’ प्रकट हुईं। सरस्वती पार्वती के शरीर-कोष से निकली थीं। अतः उन्हें कौशकी भी कहा जाता है। वह कौशिकी सुन्दर रूप धारण कर हिमालय पर एक स्थान पर जा बैठीं। वहाँ उन्हें सुंभ-निशुभ के दूत चण्ड–मुण्ड ने देखा और स्वामी को सूचना दी। शुंभ-निशुंभ ने तब अपने दूत सुग्रीव का विवाह का प्रस्ताव लेकर देवी के पास भेजा। देवा ने कहा, जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा। मैं उसी की पत्नी बनूँगी।’ शुभ ने सेनापति धूम्रलोचन को देवी के साथ युद्ध करने हेतु भेजा। वह सेना सहित मारा गया। अन्त में शुंभ और निशुंभ भी मारे गये और देवताओं का संकट दूर हुआ एवं इन्द्रादि ने पुनः अपने-अपने पद प्राप्त किए। देवी अन्तर्धान हो गयी।
उपासना क्रम में श्री गणेश उपासना, शिव उपासना, काली उपासना, विष्णु उपासना, लक्ष्मी उपासना, दुर्गा उपासना, नवग्रह उपासना, हनुमान उपासना, गायंत्री उपासना आदि में सरस्वती उपासना भी एक कड़ी है। विश्वास है, पाठक इसे पसंद करेंगे।
सरस्वती चिदानन्दमयी, अखिल भुवन कारण स्वरूपा, जगदात्मिका हैं। इन्हें सरस्वती, महासरस्वती, नील सरस्वती कहते हैं। सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री हैं। रंग इनका चन्द्रमा के समान धौला, कुंद पुष्प के समान उज्जवल है। चारों हाथों में वीणा, पुस्तक, माला लिए हैं। एवं एक हाथ में वरमुद्रा में है। यह श्वेत पद्मासना हैं। शिव, ब्रह्मा विष्णु देवराज इन्द्र भी इनकी सदैव स्तुति करते हैं। हंस इनका वाहन है। जिन पर इनकी कृपा हो जाए उसे विद्वान बनते देर नहीं लगती। कालीदास का उदारहण ही यथेष्ट होगा।
माँ भगवती सरस्वती का विशेष उत्सव माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् वसन्त पंचमी को मनाया जाता है। जब-जब आवश्यकता होती है परमेश्वर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूप में अवतरित होते हैं। महाकाली रौद्ररूपा शक्ति प्रधान दुष्टों का संहार करती हैं। सत्य प्रधान महालक्ष्मी सृष्टि का पालन करती हैं एवं रजः प्रदान ब्राह्मी शक्ति महासरस्वती जगत् की उत्पत्ति व ज्ञान का कार्य करती हैं।
शुंभ-निशुंभ दैत्यों ने इन्द्रादिक देवताओं को पराजित कर उनके अधिकार छीन लिए, देवों ने हिमालय पर जाकर माँ भगवती की अराधना की। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती पार्वती आईं, उस समय उनके देह से ‘शिवा’ प्रकट हुईं। सरस्वती पार्वती के शरीर-कोष से निकली थीं। अतः उन्हें कौशकी भी कहा जाता है। वह कौशिकी सुन्दर रूप धारण कर हिमालय पर एक स्थान पर जा बैठीं। वहाँ उन्हें सुंभ-निशुभ के दूत चण्ड–मुण्ड ने देखा और स्वामी को सूचना दी। शुंभ-निशुंभ ने तब अपने दूत सुग्रीव का विवाह का प्रस्ताव लेकर देवी के पास भेजा। देवा ने कहा, जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा। मैं उसी की पत्नी बनूँगी।’ शुभ ने सेनापति धूम्रलोचन को देवी के साथ युद्ध करने हेतु भेजा। वह सेना सहित मारा गया। अन्त में शुंभ और निशुंभ भी मारे गये और देवताओं का संकट दूर हुआ एवं इन्द्रादि ने पुनः अपने-अपने पद प्राप्त किए। देवी अन्तर्धान हो गयी।
उपासना क्रम में श्री गणेश उपासना, शिव उपासना, काली उपासना, विष्णु उपासना, लक्ष्मी उपासना, दुर्गा उपासना, नवग्रह उपासना, हनुमान उपासना, गायंत्री उपासना आदि में सरस्वती उपासना भी एक कड़ी है। विश्वास है, पाठक इसे पसंद करेंगे।
पं० राधा कृष्ण श्रीमाली
गुरू पूजन
नित्य देव पूजा के आरम्भ में या अन्त मे श्री गुरुपादुका-स्मरण का
अनिवार्य विधान है। प्रायः इस स्मरण के साथ श्री गुरुपादुका का भी स्मरण
किया जाता है। विशेष पर्वों में या व्यास पूर्णिमा, शंकर जयन्ती आदि अवसरो
पर विस्तार से गुरू-पूजन होना चाहिए। ऐसे अवसरों के लिए यहाँ संक्षिप्त
गुरू-पूजन विधि दे रहा हूँ। इनमें से यथा-शक्ति कुछ उपचारों को साधक दैविक
क्रम में भी अपना सकते हैं।
ध्यान
द्विदल कमलमध्ये बद्धंसमवति् सुमुद्रं.
घृतशिवमयगायं साधकानुग्रहार्थम।
श्रुतिशिरसिविभान्तं बोधमार्तण्ड मूर्ति,
शमिततिमिरशोकं श्री गुरूं भावयामि।
हृदंबुजे-कर्णिकमध्यसंस्थं सिंहासने संस्थितदिव्यमूर्तिम्
ध्यायेदगुरुं चन्द्रशिला प्रकाशं चित्पुस्तिकाभीष्ट वरं दधानम्।।
घृतशिवमयगायं साधकानुग्रहार्थम।
श्रुतिशिरसिविभान्तं बोधमार्तण्ड मूर्ति,
शमिततिमिरशोकं श्री गुरूं भावयामि।
हृदंबुजे-कर्णिकमध्यसंस्थं सिंहासने संस्थितदिव्यमूर्तिम्
ध्यायेदगुरुं चन्द्रशिला प्रकाशं चित्पुस्तिकाभीष्ट वरं दधानम्।।
आवाहन
ऊं सवरूपानिरुपण हेतवे श्री
गुरुवे नमः ।
ॐ स्वच्छ प्रकाश विमर्श-हेतवे श्रीपरम गुरवे नमः।
आवाहयामि पूजयामि।
ॐ स्वच्छ प्रकाश विमर्श-हेतवे श्रीपरम गुरवे नमः।
आवाहयामि पूजयामि।
आसन
ॐ इदं विष्णु विचक्रमे त्रेधा निदयं पदम्।
समूढ़ मस्य पा सुरे स्वाहा।
सर्वात्म भाव संस्थाय गुरवे सर्वसाक्षिणे
सहस्त्रारसरोजातसनं कल्पयाम्यहम् ।।
श्री गुरू पादुकाभ्यों नमः।
आसनार्थ पुष्म समर्पायामि।। (चरणों में पुष्प चढ़ाये) पाद्यं (स्नान)
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पपूयेमाक्षभिर्जतत्राः स्थिर रंगे स्तुष्टवा सस्तनूभिरव्यूशेमहि देवाहिंत यदायुः।
स्वस्ति न उन्द्रों वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषाविश्ववेदाः स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। शान्तिः शान्तिः।
श्री गुरूपादुकाभ्यों नम, पाद्यं अद्यर्य, आचमनं, स्नानं न समर्पयामि। पुनः आचमनीयं जलं समर्पयामि।
समूढ़ मस्य पा सुरे स्वाहा।
सर्वात्म भाव संस्थाय गुरवे सर्वसाक्षिणे
सहस्त्रारसरोजातसनं कल्पयाम्यहम् ।।
श्री गुरू पादुकाभ्यों नमः।
आसनार्थ पुष्म समर्पायामि।। (चरणों में पुष्प चढ़ाये) पाद्यं (स्नान)
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पपूयेमाक्षभिर्जतत्राः स्थिर रंगे स्तुष्टवा सस्तनूभिरव्यूशेमहि देवाहिंत यदायुः।
स्वस्ति न उन्द्रों वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषाविश्ववेदाः स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। शान्तिः शान्तिः।
श्री गुरूपादुकाभ्यों नम, पाद्यं अद्यर्य, आचमनं, स्नानं न समर्पयामि। पुनः आचमनीयं जलं समर्पयामि।
चरणों को उपर्युक्त उपचार अर्पित करके भली
प्रकार पोंछ लें एवं वस्त्र अर्पित करें-
वस्त्र
माया-चित्रपटाच्छन्ननिज गुह्ययोरुतेजसे।
ममश्रद्धाभक्तिवासं युग्मं देशिकागृह्ययाताम्।।
श्री गरू पादुकाभ्यों नमः वस्त्रोपवस्त्र समर्पयामि।
आचमनीयं समर्पायामि।।
ममश्रद्धाभक्तिवासं युग्मं देशिकागृह्ययाताम्।।
श्री गरू पादुकाभ्यों नमः वस्त्रोपवस्त्र समर्पयामि।
आचमनीयं समर्पायामि।।
चन्दन
अक्षत-ॐ त्र्यम्हकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्दनम्
उर्वाकुरूकमिव बन्धनात सत्योरमक्षीरा मामृतात्।।
ॐ त्रयम्बकं यजामहें सुगन्धिं पतिवेदनम्
महावाक्यों त्थाविज्ञान गन्धाढयं तापमोचनम्।
श्री गुरू पादुकाभ्यों नमः चन्दन अक्षताम् च समर्पयामि।
उर्वाकुरूकमिव बन्धनात सत्योरमक्षीरा मामृतात्।।
ॐ त्रयम्बकं यजामहें सुगन्धिं पतिवेदनम्
महावाक्यों त्थाविज्ञान गन्धाढयं तापमोचनम्।
श्री गुरू पादुकाभ्यों नमः चन्दन अक्षताम् च समर्पयामि।
पुष्प
ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय चः शंकराय
च मयस्कराय च नमः शिवाय
च शिवतराय च।।
तुरीयभवनसंभूत दिव्यभाव मनोहरम।
तारादिमनु पुष्पांदजलि गृहाण गुरुनायक।।,
श्री गुर पादुकाभ्यों नमः पुष्पं बिल्वपत्र च समर्पयामि।
तुरीयभवनसंभूत दिव्यभाव मनोहरम।
तारादिमनु पुष्पांदजलि गृहाण गुरुनायक।।,
श्री गुर पादुकाभ्यों नमः पुष्पं बिल्वपत्र च समर्पयामि।
इसके बाद अष्टोत्तरशतागदि गुरू नामों से अर्चना करें। श्री गुरू का ललाट
आदि पूजन करना हो तो यहाँ ‘नमोस्त्वन्ताय’ आदि
मन्त्रों से
गन्धाक्षत पुष्पादि अर्पित करें।
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